सामान्यतः जन्म कुंडली के बाकी सात ग्रह राहु और केतु के मध्य स्थित हो जाते हैं तो उस स्थिति को “कालसर्पयोग” कहते हैं। राहु सर्प का मुख माना गया है और केतु सर्प की पूँछ। काल का अर्थ है मृत्यु यदि अन्य ग्रह योग प्रबल ना हों तो ऐसे जातक की शीघ्र ही मृत्यु भी हो जाती है और यदि जीवित रहता भी है तो प्रायः मृत्युतुल्य कष्ट भोगता है। इस योग के प्रमुख लक्षण एवं प्रत्यक्ष प्रभाव मानसिक अशांति के रूप में प्रकट होता है। भाग्योदय में बाधा, संतति में अवरोध, गृहस्थ जीवन में नित्य प्रायः कलह, परिश्रम का फल आशानुरूप नही मिलना,दुःस्वप्न आना, स्वप्न में सर्प दिखना तथा मन में कुछ अशुभ होने की आशंका बने रहना इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
कालसर्प योग को तीन अलग अलग भागों में विभक्त किया गया है :-
1) पूर्ण कालसर्प – जब सभी ग्रह राहु और केतु के मध्य ही स्थित हों तो पूर्ण कालसर्प योग बनता है।
2) अर्ध कालसर्प योग – जब सात ग्रहों में से एक शुभ ग्रह(बृहस्पति, शुक्र, चन्द्र) राहु और केतु के मध्य से बाहर निकल जाए तो अर्ध कालसर्प योग निर्मित होता है।
3) आंशिक कालसर्प योग – राहु-केतु के मध्य स्थित सातों ग्रहों में से कोई एक पाप ग्रह बाहर निकल जाए(सूर्य, मंगल, शनि) तो आंशिक कालसर्प योग बनता है।
पूर्ण कालसर्पयोग होने पर राहु एवं केतु के जप सहित पूजन एवं हवन करवाना चाहिए। अर्ध कालसर्प योग में सिर्फ राहु या केतु जिससे निर्मित हो रहा हो जप सहित पूजन एवं हवन करवाना चाहिए।
आंशिक कालसर्प योग में मात्र पूजन से भी शांति मिल जाती है। किन्तु कुछ विद्वानों का यह मत भी है कि कालसर्प योग होने की स्थिति में फिर वो चाहे आंशिक ही क्यों ना हो राहु के 18000 जप तो करवाना ही चाहिए क्योंकि यह योग राहु एवं केतु ग्रहों से ही निर्मित होता है जिनकी शांति हेतु जप आवश्यक होते हैं।
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